कर्मा पूजा (Karma Festival): झारखंड की सांस्कृतिक धरोहर
Karma Festival
कर्मा पूजा झारखंड की एक प्रमुख और पवित्र पर्व है, जिसे आदिवासी समुदाय द्वारा विशेष उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। यह पर्व विशेष रूप से झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में मनाया जाता है। कर्मा पूजा का आयोजन भाद्र मास (अगस्त-सितंबर) की एकादशी तिथि को होता है, और यह प्रकृति, खेती और भाई-बहन के रिश्ते को समर्पित एक प्रमुख धार्मिक आयोजन है।
कर्मा पूजा का महत्त्व:
कर्मा पूजा का मुख्य उद्देश्य प्रकृति की पूजा और उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना है। इस पर्व में कर्मा वृक्ष, जिसे ‘कर्म’ या ‘कर्मा’ कहते हैं, की पूजा की जाती है। इसे खुशहाली, समृद्धि और प्रकृति के संतुलन का प्रतीक माना जाता है। कर्मा पूजा के दौरान, किसान अच्छी फसल और धन-धान्य की प्राप्ति के लिए प्रकृति और पेड़ों की आराधना करते हैं। साथ ही, यह पर्व भाई-बहन के पवित्र संबंध को और मजबूत करता है। मान्यता है कि भाई अपनी बहन के लिए कर्मा वृक्ष की पूजा करता है ताकि उसकी बहन की रक्षा और सुख-समृद्धि हो।
कर्मा पूजा की पौराणिक कथा:
कर्मा पूजा से जुड़ी एक प्रचलित कथा के अनुसार, कर्मा और धर्मा नाम के दो भाई थे। कर्मा अपने धार्मिक और नैतिक कार्यों के लिए प्रसिद्ध थे, जबकि धर्मा सांसारिक सुखों में लिप्त थे। एक दिन, धर्मा ने कर्मा के कर्म वृक्ष को नष्ट कर दिया। इस घटना के बाद, कर्मा ने संसार का त्याग कर दिया और कर्म की आराधना करने लगे। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर कर्म देवता ने उन्हें आशीर्वाद दिया और उनके जीवन को फिर से समृद्ध किया। इस प्रकार कर्मा पूजा कर्म और धर्म के सिद्धांतों को दर्शाती है, जिसमें कर्म का महत्त्व सर्वोपरि है।
कर्मा पूजा की विधि:
कर्मा पूजा की तैयारी भाद्र मास की शुरुआत से ही शुरू हो जाती है। पूजा के दिन, गाँव की महिलाएँ और पुरुष नए वस्त्र धारण करते हैं और कर्मा वृक्ष की डाली (टहनी) को लाते हैं। इस टहनी को गाँव के मध्य में स्थापित किया जाता है, जिसे ‘कर्मा वृक्ष’ के नाम से जाना जाता है। इसके बाद सामूहिक पूजा की जाती है। महिलाएँ इस पूजा का नेतृत्व करती हैं और पारंपरिक गीत गाती हैं जिन्हें ‘कर्मा गीत’ कहा जाता है। इन गीतों में प्रकृति की महिमा और कर्म देवता की स्तुति की जाती है।
पूजा के दौरान, हल्दी, चावल, और फलों का अर्पण किया जाता है। विशेष रूप से ‘महुआ’ (एक प्रकार का फूल और पेड़ का फल) का उपयोग इस पूजा में किया जाता है, जो आदिवासी जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके अलावा, धान और गेहूँ भी प्रसाद के रूप में चढ़ाए जाते हैं। पूजा के समापन के बाद, लोग मिलकर नृत्य और संगीत का आनंद लेते हैं। आदिवासी नृत्य और लोक संगीत इस पर्व का अभिन्न हिस्सा होते हैं, जिनमें पारंपरिक वाद्य यंत्रों का उपयोग किया जाता है।
कर्मा गीत और नृत्य:
कर्मा पूजा के दौरान जो गीत गाए जाते हैं, उन्हें ‘कर्मा गीत’ कहा जाता है। इन गीतों में मुख्यतः प्रकृति की महिमा, कर्मा देवता की स्तुति और जीवन के विभिन्न पहलुओं का उल्लेख होता है। गीतों के साथ-साथ कर्मा नृत्य भी होता है, जिसमें महिलाएँ और पुरुष हाथों में हाथ डालकर गोल घेरे में नृत्य करते हैं। नृत्य करते समय वे प्रकृति के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं और सुख-समृद्धि की कामना करते हैं।
समाज और सांस्कृतिक महत्त्व:
कर्मा पूजा केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं है, बल्कि यह आदिवासी समाज की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। यह पर्व आदिवासी समुदाय की एकता और सामूहिकता को बढ़ावा देता है। कर्मा पूजा के माध्यम से वे अपनी प्राचीन परंपराओं को जीवित रखते हैं और नई पीढ़ियों को अपने सांस्कृतिक मूल्यों से अवगत कराते हैं। यह पर्व प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा, पर्यावरण संरक्षण और समाज में सामूहिक सहयोग की भावना को बढ़ावा देता है।
वर्तमान में कर्मा पूजा:
समय के साथ, कर्मा पूजा का स्वरूप भी थोड़ा बदला है। हालांकि, इस पर्व की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्ता आज भी कायम है। शहरी क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी भी इस पर्व को उत्साह के साथ मनाते हैं। सरकार और विभिन्न संगठनों द्वारा कर्मा पूजा के आयोजन को समर्थन दिया जाता है, जिससे यह पर्व झारखंड की सांस्कृतिक पहचान का प्रमुख हिस्सा बना हुआ है।
कर्मा पूजा झारखंड की एक अनूठी सांस्कृतिक धरोहर है, जो प्रकृति, पर्यावरण और सामुदायिक भावना का प्रतीक है। यह पर्व न केवल धार्मिक महत्त्व रखता है, बल्कि आदिवासी जीवन के मूल्यों और परंपराओं को भी प्रतिबिंबित करता है। प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने का यह पर्व आज भी आदिवासी समाज में उतनी ही श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है, जितना कि सदियों पहले मनाया जाता था।